दीवार में एक खिड़की रहती थी – विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास
समाज में संपन्नता और विपन्नता के कई पैमाने होते हैं। हर स्तर पर हम किसी की तुलना में संपन्न भी होते हैं और किसी की तुलना में विपन्न भी। साहित्य में अक्सर विपन्नता की शिकायत अधिक दिखती है, उसके कारणों की विवेचना कम। पर जीवन जब केवल जीवन होता है – बिना किसी तुलना और शिकायत के – तब उसकी सरलता ही उसका सत्य होती है। यही सरलता और सपने, नीरस प्रतीत होने वाले जीवन को भी सरस बना देते हैं।
ऐसे ही सपने देखने और जीवन को प्रेम व सहजता से जीने वाले पात्रों की कथा है विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी”।
कहानी के पात्र और संसार
उपन्यास के नायक हैं रघुवर प्रसाद, एक छोटे शहर के महाविद्यालय के युवा व्याख्याता, और उनकी पत्नी सोनसी। दोनों एक पुराने मोहल्ले में किराये के छोटे से कमरे में रहते हैं। यही कमरा उनका बैठक कक्ष, रसोई और शयनकक्ष है। इस कमरे की एक खिड़की उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है।
यही खिड़की उन्हें एक जादुई दुनिया में ले जाती है – जहाँ नदी है, तालाब हैं, पशु-पक्षी हैं, और चाय की टपरी चलाने वाली बूढ़ी अम्मा हैं। इस पार की दुनिया हर किसी को दिखाई नहीं देती। यह दुनिया रघुवर और सोनसी के सपनों, प्रेम और एकांत की दुनिया है।
हाथी, साधु और कॉलेज का सफर
रघुवर प्रसाद का रोज़ाना का सफर भी लेखक की दृष्टि से खास बन जाता है। पहले वह भीड़भाड़ वाले टेम्पो से कॉलेज आते-जाते हैं, फिर उनकी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आता है—एक साधु उन्हें रोज़ अपने हाथी पर बैठाकर कॉलेज छोड़ने और वापस लाने लगता है।
यह हाथी उपन्यास का तीसरा महत्वपूर्ण पात्र है। उसकी उपस्थिति मोहल्ले से लेकर कॉलेज तक सबके लिए कौतुहल का विषय है। एक निम्न-मध्यमवर्गीय शिक्षक का हाथी पर कॉलेज आना साधारण घटना नहीं, पर शुक्ल जी ने इसे जीवन का सहज हिस्सा बना दिया है।
संवादों का जादू
उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है उसका संवाद। रोज़मर्रा की बातों में भी सपने, इच्छाएँ और प्रेम की परतें झलकती हैं। पति-पत्नी के साधारण संवादों में कभी घुड़सवारी, कभी उड़ने की कल्पना, तो कभी छह महीने की रात में खटिया पर लेटे रहने का सपना छुपा है।
भाषा में यही कवितामयी संवेदना उपन्यास को खास बनाती है।
उपन्यास की आत्मा
“दीवार में एक खिड़की रहती थी” दरअसल कविता के भीतर लिखा गया एक उपन्यास है। यहाँ शिकायत नहीं, बल्कि जीवन में पहले से मौजूद रंगों को देखने की दृष्टि है। विनोद कुमार शुक्ल ने रघुवर और सोनसी की दुनिया में वे रंग भरे हैं, जो आम जीवन में अक्सर हमारी नज़र से छुपे रह जाते हैं।
यही कारण है कि यह कहानी सिर्फ रघुवर और सोनसी की नहीं, बल्कि हमारी भी है। एक ऐसी कहानी जो सादगी, सपनों और प्रेम से रंगी हुई है।
👉 यह लेख उन पाठकों के लिए है जो साहित्य में जीवन के सहज और काव्यमय रंगों को तलाशना चाहते हैं।
